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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान

झुनिया ने माथा सिकोड़ कर कहा -- पगहिया माँग रहे थे। मैंने कह दिया, यहाँ पगहिया नहीं है।
'यह सब बहाना है। बड़ा ख़राब आदमी है। '
'मुझे तो बड़ा भला आदमी लगता है। क्या ख़राबी है उसमें? '
'तुम नहीं जानती? सिलिया चमारिन को रखे हुए है। '
'तो इसी से ख़राब आदमी हो गया? '
'और काहे से आदमी ख़राब कहा जाता है? '
'तुम्हारे भैया भी तो मुझे लाये हैं। वह भी ख़राब आदमी हैं? '
सोना ने इसका जवाब न देकर कहा -- मेरे घर में फिर कभी आयेगा, तो दुत्कार दूँगी।
'और जो उससे तुम्हारा ब्याह हो जाय? '
सोना लजा गयी -- तुम तो भाभी, गाली देती हो। क्यों, इसमें गाली की क्या बात है? ' ' मुझसे बोले, तो मुँह झुलस दूँ। '
'तो क्या तुम्हारा ब्याह किसी देवता से होगा। गाँव में ऐसा सुन्दर, सजीला जवान दूसरा कौन है? '
'तो तुम चली जाओ उसके साथ, सिलिया से लाख दर्जे अच्छी हो। '
'मैं क्यों चली जाऊँ? मैं तो एक के साथ चली आयी। अच्छा है या बुरा। '
'तो मैं भी जिसके साथ ब्याह होगा, उसके साथ चली जाऊँगी, अच्छा हो या बुरा। '
'और जो किसी बूढ़े के साथ ब्याह हो गया? '
सोना हँसी -- मैं उसके लिए नरम-नरम रोटियाँ पकाऊँगी, उसकी दवाइयाँ कूटूँ-छानूँगी, उसे हाथ पकड़कर उठाऊँगी, जब मर जायगा, तो मुँह ढाँपकर रोऊँगी।
'और जो किसी जवान के साथ हुआ! '
'तब तुम्हारा सिर, हाँ नहीं तो! '
'अच्छा बताओ, तुम्हें बूढ़ा अच्छा लगता है, कि जवान? '
'जो अपने को चाहे वही जवान है, न चाहे वही बूढ़ा है। '
'दैव करे, तुम्हारा बयाह किसी बूढ़े से हो जाय, तो देखूँ, तुम उसे कैसे चाहती हो। तब मनाओगी, किसी तरह यह निगोड़ा मर जाय, तो किसी जवान को लेकर बैठ जाऊँ। '
'मुझे तो उस बूढ़े पर दया आये। '

इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिन्दे और दलाल गाँव-गाँव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था, जो मिस्टर खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिन्दा इस गाँव में भी आया। किसानों ने जो उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है; जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है, तो पेरने की मेहनत क्यों उठायी जाय? सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया; अगर कुछ कम भी मिले, तो परवाह नहीं। तत्काल तो मिलेगा। किसी को बैल लेना था, किसी को बाक़ी चुकाना था, कोई महाजन से गला छुड़ाना चाहता था। होरी को बैलों की गोईं लेनी थी। अबकी ऊख की पैदावार अच्छी न थी; इसलिए यह डर था कि माल न पड़ेगा। और जब गुड़ के भाव मिल की चीनी मिलेगी, तो गुड़ लेगा ही कौन? सभी ने बयाने ले लिये। होरी को कम-से-कम सौ रुपये की आशा थी। इसमें एक मामूली गोई आ जायगी; लेकिन महाजनों को क्या करे! दातादीन, मँगरू, दुलारी, सिंगुरीसिंह सभी तो प्राण खा रहे थे। अगर महाजनों को देने लगेगा, तो सौ रुपए सूद-भर को भी न होंगे! कोई ऐसी जुगुत न सूझती थी कि ऊख के रुपए हाथ आ जायँ और किसी को ख़बर न हो। जब बैल घर आ जायँगे, तो कोई क्या कर लेगा? गाड़ी लदेगी, तो सारा गाँव देखेगा ही, तौल पर जो रुपए मिलेंगे, वह सबको मालूम हो जायँगे। सम्भव है मँगरू और दातादीन हमारे साथ-साथ रहें। इधर रुपए मिले, उधर उन्होंने गर्दन पकड़ी। शाम को गिरधर ने पूछा -- तुम्हारी ऊख कब तक जायेगी होरी काका?

होरी ने झाँसा दिया -- अभी तो कुछ ठीक नहीं है भाई, तुम कब तक ले जाओगे?
गिरधर ने भी झाँसा दिया -- अभी तो मेरा भी कुछ ठीक नहीं है काका! और लोग भी इसी तरह की उड़नघाइयाँ बताते थे, किसी को किसी पर विश्वास न था।
झिंगुरीसिंह के सभी रिनियाँ थे, और सबकी यही इच्छा थी कि झिंगुरीसिंह के हाथ रुपए न पड़ने पायें, नहीं वह सबका सब हज़म कर जायगा। और जब दूसरे दिन असामी फिर रुपये माँगने जायगा, तो नया काग़ज़, नया नज़राना, नई तहरीर। दूसरे दिन शोभा आकर बोला -- दादा कोई ऐसा उपाय करो कि झिंगुरी को हैज़ा हो जाय। ऐसा गिरे कि फिर न उठे।
होरी ने मुस्कराकर कहा -- क्यों, उसके बाल-बच्चे नहीं हैं?
'उसके बाल-बच्चों को देखें कि अपने बाल-बच्चों को देखें? वह तो दो-दो मेहरियों को आराम से रखता है, यहाँ तो एक को रूखी रोटी भी मयस्सर नहीं, सारी जमा ले लेगा। एक पैसा भी घर न लाने देगा। '
'मेरी तो हालत और भी ख़राब है भाई, अगर रुपए हाथ से निकल गये, तो तबाह हो जाऊँगा। गोईं के बिना तो काम न चलेगा। '
'अभी तो दो-तीन दिन ऊख ढोते लगेंगे। ज्यों ही सारी ऊख पहुँच जाय, जमादार से कहें कि भैया कुछ ले ले, मगर ऊख चटपट तौल दे, दाम पीछे देना। इधर झिंगुरी से कह देंगे, अभी रुपए नहीं मिले। '
होरी ने विचार करके कहा -- झिंगुरीसिंह हमसे-तुमसे कई गुना चतुर है सोभा! जाकर मुनीम से मिलेगा और उसीसे रुपए ले लेगा। हम-तुम ताकते रह जायँगे। जिस खन्ना बाबू का मिल है, उन्हीं खन्ना बाबू की महाजनी कोठी भी है। दोनों एक हैं।
शोभा निराश होकर बोला -- न जाने इन महाजनों से भी कभी गला छूटेगा कि नहीं।
होरी बोला -- इस जनम में तो कोई आशा नहीं है भाई! हम राज नहीं चाहते, भोग-विलास नहीं चाहते, ख़ाली मोटा-झोटा पहनना, और मोटा-झोटा खाना और मरजाद के साथ रहना चाहते हैं। वह भी नहीं सधता।
शोभा ने धूर्तता के साथ कहा -- मैं तो दादा, इन सबों को अबकी चकमा दूँगा। जमादार को कुछ दे-दिलाकर इस बात पर राज़ी कर लूँगा कि रुपए के लिए हमें ख़ूब दौड़ायें। झिंगुरी कहाँ तक दौड़ेंगे।
होरी ने हँसकर कहा -- यह सब कुछ न होगा भैया! कुशल इसी में है कि झिंगुरीसिंह के हाथ-पाँव जोड़ो। हम जाल में फँसे हुए हैं। जितना ही फड़फड़ाओगे, उतना ही और जकड़ते जाओगे। ' तुम तो दादा, बूढ़ों की-सी बातें कर रहे हो। कटघरे में फँसे बैठे रहना तो कायरता है। फन्दा और जकड़ जाय बला से; पर गला छुड़ाने के लिए ज़ोर तो लगाना ही पड़ेगा। यही तो होगा झिंगुरी घर-द्वार नीलाम करा लेंगे; करा लें नीलाम! मैं तो चाहता हूँ कि हमें कोई रुपए न दे, हमें भूखों मरने दे, लातें खाने दे, एक पैसा भी उधार न दे; लेकिन पैसावाले उधार न दें तो सूद कहाँ से पायें। एक हमारे ऊपर दावा करता है, तो दूसरा हमें कुछ कम सूद पर रुपए उधार देकर अपने जाल में फँसा लेता है। मैं तो उसी दिन रुपये लेने जाऊँगा, जिस दिन झिंगुरी कहीं चला गया होगा।
होरी का मन भी विचलित हुआ -- हाँ, यह ठीक है।
'ऊख तुलवा देंगे। रुपए दाँव-घात देखकर ले आयँगे। '
'बस-बस, यही चाल चलो। '
दूसरे दिन प्रातःकाल गाँव के कई आदमियों ने ऊख काटनी शुरू की। होरी भी अपने खेत में गँड़ासा लेकर पहुँचा। उधर से शोभा भी उसकी मदद को आ गया। पुनिया, झुनिया, धनिया, सोना सभी खेत में जा पहुँचीं। कोई ऊख काटता था, कोई छीलता था, कोई पूले बाँधता था। महाजनों ने जो ऊख कटते देखी, तो पेट में चूहे दौड़े। एक तरफ़ से दुलारी दौड़ी, दूसरी तरफ़ से मँगरू साह, तीसरी ओर से मातादीन और पटेश्वरी और झिंगुरी के पियादे। दुलारी हाथ-पाँव में मोटे-मोटे चाँदी के कड़े पहने, कानों में सोने का झूमक, आँखों में काजल लगाये, बूढ़े यौवन को रँगे-रँगाये आकर बोली -- पहले मेरे रुपये दे दो तब ऊख काटने दूँगी। मैं जितना ही ग़म खाती हूँ, उतना ही तुम शेर होते हो। दो साल से एक धेला सूद नहीं दिया, पचास तो मेरे सूद के होते हैं।
होरी ने घिघियाकर कहा -- भाभी, ऊख काट लेने दो, इनके रुपये मिलते हैं, तो जितना हो सकेगा, तुमको भी दूँगा। न गाँव छोड़कर भागा जाता हूँ, न इतनी जल्द मौत ही आयी जाती है। खेत में खड़ी ऊख तो रुपये न देगी?

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